Sunday, 2 February 2014

सफलता की उड़ान : GSLV D5 और स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन



GSLV D5 प्रक्षेपण स्थल पर


भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने रविवार को जियोसिनक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (भू-स्थैतिक उपग्रह प्रक्षेपण वाहन) यानी जीएसएलवी डी-5 (GSLV D5)का सफल प्रक्षेपण किया जो इस लिहाज़ से अहम था कि भारत का अपना क्रायोजेनिक इंजन लगा हुआ था। जीएसएलवी डी-5 को रविवार शाम 4।18 बजे श्रीहरिकोटा अंतरिक्ष केंद्र से प्रक्षेपित किया गया था। स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन वाले जीएसएलवी डी-5 ने जीसैट-14 संचार उपग्रह को सफलतापूर्व उसकी कक्षा में स्थापित कर दिया।
GSLV D5 प्रक्षेपण स्थल परGSLV D5 प्रक्षेपण स्थल परये वही इंजन है जिसे भारत को विकसित करने में बीस वर्ष का समय लगा, जिसकी तकनीक को भारत अपने पड़ोसी देश रूस से हासिल करना चाहता था। लेकिन अमरीका के दबाव में रूस ने भारत को ये तकनीक नहीं दी थी। बीस वर्ष बाद ही सही भारत ने क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक में महारथ हासिल कर ली है। इस तकनीक का महत्व इस तथ्य में निहित है कि दो हज़ार किलो वज़नी उपग्रहों को प्रक्षेपित करने के लिए क्रायोजेनिक इंजन की सख़्त ज़रूरत पड़ती है। इसकी वजह ये है कि इसी इंजन से वो ताक़त मिलती है, जिसके बूते किसी उपग्रह को 36,000 किलोमीटर दूर स्थित कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित किया जाता है। इस सफल प्रक्षेपण के साथ ही ये कहा जा सकता है कि भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान की दुनिया में अब हर तरह की उपलब्धि हासिल कर ली है।
इस रॉकेट के सफल प्रक्षेपण से दूसरे देशों के संचार उपग्रह भी भारत के लॉन्च पैड से छोड़े जा सकेंगे। इसकी कामयाबी इसलिए भी अहम है क्योंकि पिछले “20 साल में कोई देश ऐसा नहीं है” जिसने क्रायोजेनिक तकनीक का विकास किया हो।
भारत का छोटा रॉकेट पीएसएलवी (पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल PSLV) यानी ध्रुवीय प्रक्षेपण यान बहुत क़ामयाब है। भारत अपने उपग्रह ख़ुद बना रहा है। क्रायोजनिक इंजन भारत के संचार उपग्रहों को भी प्रक्षेपित करेगा। भारत जब अपना चंद्रयान-2 मिशन आरंभ करेगा, उसके लिए भी जीएसएलवी की ज़रूरत होगी।
महत्वपूर्ण तथ्य
महत्वपूर्ण तथ्य

GSLV D5 महत्वपूर्ण तथ्य

  1. ये भारत का सबसे बड़ा राकेट है और इससे भारत को काफी उम्मीदें हैं।
  2. ये राकेट 49 मीटर ऊंचा है। मतलब 17 मंजिली बिल्डिंग के बराबर इसकी ऊंचाई है।
  3. करीब 419 टन का इसका वजन है। यह वजह 80 व्यस्क हाथियों के वजन के बराबर है।
  4. भारत को इसकी काफी सख्त ज़रूरत है क्योंकि संचार संबंधी उपग्रह को छोड़ने में इसी राकेट से मदद मिलेगी। अगर भारत इसके प्रक्षेपण में कामयाब हो जाता है तो वो अपने संचार उपग्रहों को इस राकेट से छोड़ पाएगा।
  5. इससे काफी धन बचेगा क्योंकि अभी भारत इस काम के लिए फ्रांस के एक राकेट का इस्तेमाल करता है। इसके लिए भारत को कम से कम दोगुना कीमत चुकानी पड़ती है।
  6. अगर इस राकेट का प्रक्षेपण कई बार सफल हो जाता है तो आप दुनिया भर से व्यावसायिक काम पा सकते है। दूसरे देशों के संचार उपग्रह भारत के लांच पैड से छोड़े जा सकेंगे।
  7. इस राकेट के तीसरे चरण में एक क्रायोजेनिक इंजन का इस्तेमाल हो रहा है। क्रायोजेनिक इंजन में तरल हाइड्रोजन और तरल ऑक्सीजन का इस्तेमाल होता है, जो बरफ से भी बहुत कम तापमान पर काम करती है।
  8. ये तकनीकी आज 20 साल पहले भारत को देने से इनकार की गई थी। अमरीका के दबाव में रूस ने इनकार किया था।
  9. तब से भारत इस तकनीकी के विकास में लगा है। जीएसएलवी की इस उड़ान में जो क्रायोजेनिक इंजन लगा है वो भारत का अपना बनाया हुआ है।
  10. इस प्रक्षेपण की कामयाबी बहुत ज़रूरी है। उपग्रह से अधिक अहमियत क्रायोजेनिक इंजन की है।

क्रायोजेनिक इंजन क्या है?

  1. क्रायोजेनिक तकनीक को ‘निम्नतापकी’ कहा जाता है, जिसका ताप -0 डिग्री से -150 डिग्री सेल्सियस होता है।
  2. ‘क्रायो’ यूनानी शब्द ‘क्रायोस’ से बना है, जिसका अर्थ ‘बर्फ जैसा ठण्डा’ है।
  3. क्रायोजेनिक तकनीक का मुख्य प्रयोग रॉकेटों में किया जाता है, जहाँ ईधनों को क्रायोजेनिक तकनीक से तरल अवस्था में प्राप्त कर लिया जाता है।
  4. इस तकनीक में द्रव हाइड्रोजन एवं द्रव ऑक्सीजन का प्रयोग किया जाता है।
सफलता की उडान
सफलता की उडान
किसी राकेट को अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करने के दौरान उसका ईंधन भी साथ में ले जाना पड़ता है। ऐसे में सबसे हल्का ईंधन तरल हाईड्रोजन और तरल ऑक्सीजन है और उसे जलाने पर सबसे अधिक ऊर्जा मिलती है। मुख्य बात यह है कि राकेट कितनी तेजी से जा रहा है और राकेट के साथ जितना कम वजन होगा वो उतनी अधिक दूर तक जा सकेगा।
क्रायोजेनिक इंजन शून्य से बहुत नीचे यानी क्रायोजेनिक तापमान पर काम करते हैं। ऋण 238 डिग्री फॉरेनहाइट (-238′F) को क्रायोजेनिक तापमान कहा जाता है। इस तापमान पर क्रायोजेनिक इंजन का ईंधन ऑक्सीजन और हाइड्रोजन गैसें तरल यानी द्रव बन जाती हैं। द्रव ऑक्सीजन और द्रव हाइड्रोजन को क्रायोजेनिक इंजन में जलाया जाता है। द्रव ईंधन जलने से इतनी ऊर्जा पैदा होती है जिससे क्रायोजेनिक इंजन को 4।4 किलोमीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार मिल जाती है।
क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक का विकास द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हुआ। तब सबसे ज्यादा ऊर्जा पैदा करने वाले और आसानी से मुहैया ऑक्सीजन और हाइड्रोजन को ईंधन के तौर पर सबसे बेहतर पाया गया। मुश्किल ये थी इंजन में ये गैस के तौर पर इस्तेमाल नहीं हो सकती थीं, क्योंकि तब उन्हें रखने के लिए इंजन बड़ा बनाना पड़ता, जबकि रॉकेट उड़ाने के लिए इसका छोटा होना जरूरी शर्त है।
जीसैट-14 भारत का 23 वां भूस्थिर संचार उपग्रह है। जीसैट-14 के चार पूर्ववर्तियों का प्रक्षेपण जीएसएलवी ने 2001, 2003, 2004 और 2007 में किया था। जीसैट-14 भारत के नौ ऑपरेशनल भूस्थिर उपग्रहों के समूह में शामिल होगा। इस मिशन का प्राथमिक उद्देश्य विस्तारित सी और केयू-बैंड ट्रांसपोंडरों की अंतर्कक्षा क्षमता को बढ़ाना और नये प्रयोगों के लिए मंच प्रदान करना है। जीसैट-14 को 74 डिग्री पूर्वी देशांतर पर स्थापित किया जाएगा और इनसैट-3 सी, इनसैट-4 सीआर और कल्पना-1 उपग्रहों के साथ स्थित होगा। जीसैट-14 पर मौजूद 12 संचार ट्रांसपोंडर इनसैट, जीसैट प्रणाली की क्षमता को और बढ़ाएंगे।
जीसैट-14 भारत का 23 वां भूस्थिर संचार उपग्रह है। जीसैट-14 के चार पूर्ववर्तियों का प्रक्षेपण जीएसएलवी ने 2001, 2003, 2004 और 2007 में किया था। जीसैट-14 भारत के नौ ऑपरेशनल भूस्थिर उपग्रहों के समूह में शामिल होगा। इस मिशन का प्राथमिक उद्देश्य विस्तारित सी और केयू-बैंड ट्रांसपोंडरों की अंतर्कक्षा क्षमता को बढ़ाना और नये प्रयोगों के लिए मंच प्रदान करना है। जीसैट-14 को 74 डिग्री पूर्वी देशांतर पर स्थापित किया जाएगा और इनसैट-3 सी,  इनसैट-4 सीआर और कल्पना-1 उपग्रहों के साथ स्थित होगा। जीसैट-14 पर मौजूद 12 संचार ट्रांसपोंडर इनसैट, जीसैट प्रणाली की क्षमता को और बढ़ाएंगे।
भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान में प्रयुक्त होने वाली द्रव्य ईंधन चालित इंजन में ईंधन बहुत कम तापमान पर भरा जाता है, इसलिए ऐसे इंजन तुषारजनिक रॉकेट इंजन (क्रायोजेनिक रॉकेट इंजिन) कहलाते हैं। इस तरह के रॉकेट इंजन में अत्यधिक ठंडी और द्रवीकृत गैसों को ईंधन और ऑक्सीकारक के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस इंजन में हाइड्रोजन और ईंधन क्रमश: ईंधन और ऑक्सीकारक का कार्य करते हैं। ठोस ईंधन की अपेक्षा यह कई गुना शक्तिशाली सिद्ध होते हैं और रॉकेट को बूस्ट देते हैं। विशेषकर लंबी दूरी और भारी रॉकेटों के लिए यह तकनीक आवश्यक होती है।
क्रायोजेनिक इंजन के प्रणोद में तापमान बहुत ऊंचा (2000 डिग्री सेल्सियस से अधिक) होता है। अत: ऐसे में सर्वाधिक प्राथमिक कार्य अत्यंत विपरीत तापमानों पर इंजन व्यवस्था बनाए रखने की क्षमता अर्जित करना होता है। क्रायोजेनिक इंजनों में -253डिग्री सेल्सियस से लेकर 2000 डिग्री सेल्सियस तक का उतार-चढ़ाव होता है, इसलिए प्रणोद(थ्रस्ट) चैंबरों, टर्बाइनों और ईंधन के सिलेंडरों के लिए कुछ विशेष प्रकार की मिश्र-धातु की आवश्यकता होती है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने बहुत कम तापमान को आसानी से झेल सकने वाली मिश्रधातु विकसित कर ली है।
अन्य द्रव्य प्रणोदकों की तुलना में क्रायोजेनिक द्रव्य प्रणोदकों का प्रयोग कठिन होता है। इसकी मुख्य कठिनाई यह है कि ये बहुत जल्दी वाष्प बन जाते हैं। इन्हें अन्य द्रव प्रणोदकों की तरह रॉकेट खंडों में नहीं भरा जा सकता। क्रायोजेनिक इंजन के टरबाइन और पंप जो ईंधन और ऑक्सीकारक दोनों को दहन कक्ष में पहुंचाते हैं, को भी खास किस्म के मिश्रधातु से बनाया जाता है। द्रव हाइड्रोजन और द्रव ऑक्सीजन को दहन कक्ष तक पहुंचाने में जरा सी भी गलती होने पर कई करोड़ रुपए की लागत से बना जीएसएलवी रॉकेट रास्ते में जल सकता है। इसके अलावा दहन के पूर्व गैसों (हाइड्रोजन और ऑक्सीजन) को सही अनुपात में मिश्रित करना, सही समय पर दहन प्रारंभ करना, उनके दबावों को नियंत्रित करना, पूरे तंत्र को गर्म होने से रोकना आदि।
इस तकनीक का महत्व इस तथ्य में निहित है कि दो हज़ार किलो वज़नी उपग्रहों को प्रक्षेपित करने के लिए क्रायोजेनिक इंजन की सख़्त ज़रूरत पड़ती है। इसकी वजह ये है कि इसी इंजन से वो ताक़त मिलती है, जिसके बूते किसी उपग्रह को 36,000 किलोमीटर दूर स्थित कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित किया जाता है। इस सफल प्रक्षेपण के साथ ही ये कहा जा सकता है कि भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान की दुनिया में अब हर तरह की उपलब्धि हासिल कर ली है।

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